ना जाने कितने ही ‘क्यों’ से जूझ रही हूं मैं
ना जाने कितने ही ‘क्यों’ कैद है ज़ेहन में
लेकिन जवाब….
होकर भी नहीं है…
मेरी बेरूखी जगजाहिर है
ना जाने क्यों मेरी बेबसी दिखती नहीं,
मेरा चिड़चिड़ापन तो दिखता है
ना जाने क्यों मेरी मायूसी दिखती नहीं,
तस्वीरों में कैद मुस्कुराहट बताती है
कि खुश हूं मैं
जाने क्यों आंखों से सैलाब बन बह जाने को
तैयार आंसू दिखते नहीं,
क्यों दिखती है मेरी नासमझी उसे
इन बेवकूफियों के पीछे छिपी
चंद सुकून के लम्हों कि चाहत दिखती नहीं,
क्यों देख कर भी अनदेखा कर जाता है
हर दफा वो उसे खोने के मेरे डर को,
क्यों मेरी खामोशियां पढ़ने वाला
पढ़ नहीं पा रहा मेरे भीतर दबे शोर को,
क्यों समझता नहीं वो कि
खुद को खो रही हूं मैं
उसे खोने के डर से,
मुस्कुरा भी नहीं पा रही
कल तक रूह खिलखिलाती थी जिसकी
उसके होने के एहसास भर से,
क्यों उसे मेरे हर “ठीक हूं” के बीच
छुपा दर्द महसूस नहीं होता
चाहूं जब भी साथ सबसे बढ़ कर
क्यों उस पल वो साथ नहीं होता,
खुद से भी कुछ शिकायतें हैं कि आखिर,
क्यों मैं वक्त कि नज़ाकत समझ नहीं पाती
क्यों बीते कल की यादें, आने वाले कल के
फिक्र में उलझ कर
मौजूदा लम्हें में खुशी से जी नहीं पाती,
क्यों उसकी बेरूखी पर उससे नजरें चुरा लेती हूं
जानती हूं जब कि मैं भी तो उसके ही जैसी हूं,
मान लिया वो है ग़लत पर कसूर तो है मेरा भी
नहीं समझता वो मुझे गर मैं कौन सा उसे समझती हूं,
सुनो, शिकवे शिकायतें तो होती रहेगी
ये वक्त जो बीत गया फिर लौट कर नहीं आएगा,
खो रहे हैं जो हम, हमें कोई नहीं लौटा पाएगा,
कुछ ख्वाबों को हकीकत कि जमीं तक लाना है
इन रंजिशों के दरम्यां इनका वजूद गुम हो
जाएगा,
भूलाना चाहती हूं मैं भी सारे गिले
कह दो बस इतना कि छोड़ो ये शिकायतें एक बार फिर से हंस दो ना,
तुम्हारी हंसी को आज भी अपनी खुशी में मैं गिनता हूं,
मान लूंगी मैं भी कि खता है मेरी ये कि क्यों
सोचती मैं इतना हूं…
जो हो गया उसे सोचकर क्यों हम जले
दम तोड़ ना दे रिश्ता हो सके तो उससे पहले रोक लेना
कि तेरी एक आवाज के इंतजार में है आज भी हम खड़े…
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